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किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद - बहराम जी कविता - Darsaal

किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद

किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद

मिरा हो किस तरह से दर्द-ए-सर बंद

नहीं हैं तेरे दाम-ए-ज़ुल्फ़ में दिल

लटकते हैं हज़ारों मुर्ग़ पर-बंद

नहीं बुत-ख़ाना ओ का'बा पे मौक़ूफ़

हुआ हर एक पत्थर में शरर बंद

रक़ीबों से हुई है बज़्म ख़ाली

करो दरवाज़ा बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर बंद

तमाशा बंद आँखों में है मुझ को

हुई मेरी ब-ज़ाहिर चश्म-ए-तर बंद

नहीं दुनिया में आज़ादी किसी को

है दिन में शम्स और शब को क़मर बंद

दिखाओ मय-कशो अब ज़ोर-ए-मस्ती

किया ज़ाहिद ने मय-ख़ाने का दर बंद

दर-ए-जानाँ भी इक मरजा है 'बहराम'

हुजूम-ए-आशिक़ाँ है रहगुज़र बंद

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