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ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं - बहराम जी कविता - Darsaal

ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं

ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं

आबाद अगर नहीं हूँ तो बर्बाद भी नहीं

मिलती तिरी वफ़ा की मुझे दाद भी नहीं

मजनूँ नहीं है दहर में फ़रहाद भी नहीं

कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा

इंसाफ़ अगर नहीं है तो बे-दाद भी नहीं

इंसाँ की क़द्र क्या है जो हो तेरे रू-ब-रू

तेरे मुक़ाबले में परी-ज़ाद भी नहीं

अफ़सोस किस से यार की खिंचवाइए शबीह

'मानी' नहीं जहाँ में है 'बहज़ाद' भी नहीं

करता है उज़्र-ए-जौर-ओ-जफ़ा यार तू अबस

होना जो था हुआ वो हमें याद भी नहीं

कुश्ता हुआ हूँ अबरू-ए-ख़मदार-ए-यार का

मेरे लिए ज़रूरत-ए-जल्लाद भी नहीं

हसरत भरे हुए गए दुनिया से सैकड़ों

तस्दीक़ किस से कीजिए शद्दाद भी नहीं

'बहराम' मेरे ज़ोर-ए-तबीअत से है सुख़न

शागिर्द मैं नहीं हूँ तो उस्ताद भी नहीं

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