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ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई - ज़फ़र कविता - Darsaal

ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई

ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई

हम को अपनी तीरा-रोज़ी की हक़ीक़त खुल गई

क्या तमाशा है रग-ए-लैला में डूबा नीश्तर

फ़स्द-ए-मजनूँ बाइस-ए-जोश-ए-मोहब्बत खुल गई

दिल का सौदा इक निगह पर है तिरी ठहरा हुआ

नर्ख़ तू क्या पूछता है अब तो क़ीमत खुल गई

आईने को नाज़ था क्या अपने रू-ए-साफ़ पर

आँख ही पर देखते ही तेरी सूरत खुल गई

थी असीरान-ए-क़फ़स को आरज़ू परवाज़ की

खुल गई खिड़की क़फ़स की क्या कि क़िस्मत खुल गई

तेरे आरिज़ पर हुआ आख़िर ग़ुबार-ए-ख़त नुमूद

खुल गई आईना-रू दिल की कुदूरत खुल गई

बे-तकल्लुफ़ आए तुम खोले हुए बंद-ए-क़बा

अब गिरह दिल की हमारे फ़िल-हक़ीक़त खुल गई

बाँधी ज़ाहिद ने तवक्कुल पर कमर सौ बार चुस्त

लेकिन आख़िर बाइस-ए-सुस्ती-ए-हिम्मत खुल गई

खुलते खुलते रुक गए वो उन को तू ने ऐ 'ज़फ़र'

सच कहो किस आँख से देखा कि चाहत खुल गई

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