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तुफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है - ज़फ़र कविता - Darsaal

तुफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है

तुफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है

इश्क़ की आतिश बला है उस की सोज़िश और है

क्यूँ न वहशत में चुभे हर मू ब-शक्ल-ए-नीश-तेज़

ख़ार-ए-ग़म की तेरे दीवाने की काविश और है

मुतरिबो बा-साज़ आओ तुम हमारी बज़्म में

साज़-ओ-सामाँ से तुम्हारी इतनी साज़िश और है

थूकता भी दुख़्तर-ए-रज़ पर नहीं मस्त-ए-अलस्त

जो कि है उस फ़ाहिशा पर ग़श वो फ़ाहिश और है

ताब क्या हम-ताब होवे उस से ख़ुर्शीद-ए-फ़लक

आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-दिल की अपने ताबिश और है

सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें

गर हमें मालूम हो कुछ उस की ख़्वाहिश और है

अब्र मत हम-चश्म होना चश्म-ए-दरिया-बार से

तेरी बारिश और है और उस की बारिश और है

है तो गर्दिश चर्ख़ की भी फ़ित्ना-अंगेज़ी में ताक़

तेरी चश्म-ए-फ़ित्ना-ज़ा की लेक गर्दिश और है

बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'

क्या कहूँ तुझ से कि वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है

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