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सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद - ज़फ़र कविता - Darsaal

सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद

सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद

ग़ाफ़िल तू ज़रा देख वो हर आन है मौजूद

हर तार का दामन के मिरे कर के तबर्रुक

सर-बस्ता हर इक ख़ार-ए-बयाबान है मौजूद

उर्यानी-ए-तन है ये ब-अज़-ख़िलअत-ए-शाही

हम को ये तिरे इश्क़ में सामान है मौजूद

किस तरह लगावे कोई दामाँ को तिरे हाथ

होने को तू अब दस्त-ओ-गरेबान है मौजूद

लेता ही रहा रात तिरे रुख़ की बलाएँ

तू पूछ ले ये ज़ुल्फ़-ए-परेशान है मौजूद

तुम चश्म-ए-हक़ीक़त से अगर आप को देखो

आईना-ए-हक़ में दिल-ए-इंसान है मौजूद

कहता है 'ज़फ़र' हैं ये सुख़न आगे सभों के

जो कोई यहाँ साहिब-ए-इरफ़ान है मौजूद

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