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रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा - ज़फ़र कविता - Darsaal

रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा

रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा

फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़्ताब आ जाएगा

तेरा एहसाँ होगा क़ासिद गर शिताब आ जाएगा

सब्र मुझ को देख कर ख़त का जवाब आ जाएगा

हो न बेताब इतना गर उस का इताब आ जाएगा

तू ग़ज़ब में ऐ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब आ जाएगा

इस क़दर रोना नहीं बेहतर बस अब अश्कों को रोक

वर्ना तूफ़ाँ देख ऐ चश्म-ए-पुर-आब आ जाएगा

पेश होवेगा अगर तेरे गुनाहों का हिसाब

तंग ज़ालिम अरसा-ए-रोज़-ए-हिसाब आ जाएगा

देख कर दस्त-ए-सितम में तेरी तेग़-ए-आबदार

मेरे हर ज़ख़्म-ए-जिगर के मुँह में आब आ जाएगा

अपनी चश्म-ए-मस्त की गर्दिश न ऐ साक़ी दिखा

देख चक्कर में अभी जाम-ए-शराब आ जाएगा

ख़ूब होगा हाँ जो सीने से निकल जाएगा तू

चैन मुझ को ऐ दिल-ए-पुर-इज़्तिराब आ जाएगा

ऐ 'ज़फ़र' उठ जाएगा जब पर्दा-ए-शर्म-ओ-हिजाब

सामने वो यार मेरे बे-हिजाब आ जाएगा

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