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पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के - ज़फ़र कविता - Darsaal

पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के

पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के

लग गया है ख़ून-ए-आशिक़ मुँह को इस तलवार के

ख़ाल-ए-आरिज़ देख लो हल्क़े में ज़ुल्फ़-ए-यार के

मार-ए-मोहरा गर न देखा हो दहन में मार के

अंजुम-ए-ताबाँ फ़लक पर जानती है जिस को ख़ल्क़

कुछ शरारे हैं वो मेरी आह-ए-आतिश-बार के

तूबा-ए-जन्नत से उस को काम क्या है हूर-वश

जो कि हैं आसूदा साए में तिरी दीवार के

पूछते हो हाल क्या मेरा क़िमार-ए-इश्क़ में

झाड़ बैठा हाथ मैं नक़्द-ए-दिल-ओ-दीं हार के

ये हुई तासीर इश्क़-ए-कोह-कन से संग-ए-आब

अश्क जारी अब तलक चश्मों से हैं कोहसार के

है वो बे-वहदत कि जो समझे है कुफ़्र ओ दीं में फ़र्क़

रखती है तस्बीह रिश्ता तार से ज़ुन्नार के

वादा-ए-दीदार जो ठहरा क़यामत पर तो याँ

रोज़ होती है क़यामत शौक़ में दीदार के

होशियारी है यही कीजे 'ज़फ़र' इस से हज़र

देखिए जिस को नशे में बादा-ए-पिंदार के

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