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पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या - ज़फ़र कविता - Darsaal

पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या

पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या

जब मिरा ख़ूँ हो चुका शमशीर फिर खींची तो क्या

ऐ मुहव्विस जब कि ज़र तेरे नसीबों में नहीं

तू ने मेहनत भी पय-ए-इक्सीर फिर खींची तो क्या

गर खिंचे सीने से नावक रूह तू क़ालिब से खींच

ऐ अजल जब खिंच गया वो तीर फिर खींची तो क्या

खींचता था पाँव मेरा पहले ही ज़ंजीर से

ऐ जुनूँ तू ने मिरी ज़ंजीर फिर खींची तो क्या

दार ही पर उस ने खींचा जब सर-ए-बाज़ार-इश्क़

लाश भी मेरी पय-ए-तशहीर फिर खींची तो क्या

खींच अब नाला कोई ऐसा कि हो उस को असर

तू ने ऐ दिल आह-ए-पुर-तासीर फिर खींची तो क्या

चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना

देख कर तस्वीर को तस्वीर फिर खींची तो क्या

खींच ले अव्वल ही से दिल की इनान-ए-इख़्तियार

तू ने गर ऐ आशिक़-ए-दिल-गीर फिर खींची तो क्या

क्या हुआ आगे उठाए गर 'ज़फ़र' अहसान-ए-अक़्ल

और अगर अब मिन्नत-ए-तदबीर फिर खींची तो क्या

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