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निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ - ज़फ़र कविता - Darsaal

निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ

निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ

इधर से क्या न हुआ पर उधर से कुछ न हुआ

जवाब-ए-साफ़ तो लाता अगर न लाता ख़त

लिखा नसीब का जो नामा-बर से कुछ न हुआ

हमेशा फ़ित्ने ही बरपा किए मिरे सर पर

हुआ ये और तो उस फ़ित्नागर से कुछ न हुआ

बला से गिर्या-ए-शब तू ही कुछ असर करता

अगरचे इश्क़ में आह-ए-सहर से कुछ न हुआ

जला जला के किया शम्अ साँ तमाम मुझे

बस और तो मुझे सोज़-ए-जिगर से कुछ न हुआ

रहीं अदू से वही गर्म-जोशियाँ उस की

इस आह-ए-सर्द और इस चश्म-ए-तर से कुछ न हुआ

उठाया इश्क़ में क्या क्या न दर्द-ए-सर मैं ने

हुसूल पर मुझे उस दर्द-ए-सर से कुछ न हुआ

शब-ए-विसाल में भी मेरी जान को आराम

अज़ीज़ो दर्द-ए-जुदाई के डर से कुछ न हुआ

न दूँगा दिल उसे मैं ये हमेशा कहता था

वो आज ले ही गया और 'ज़फ़र' से कुछ न हुआ

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