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मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो - ज़फ़र कविता - Darsaal

मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो

मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो

ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो

ग़नीमत तुम इसे समझो कि इस ख़ुम-ख़ाने में यारो

नसीब इक-दम दिल-ए-ख़ुर्रम हमें भी हो तुम्हें भी हो

दिलाओ हज़रत-ए-दिल तुम न याद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ उस का

कहीं ऐसा न हो ये सम हमें भी हो तुम्हें भी हो

हमेशा चाहता है दिल कि मिल कर कीजे मय-नोशी

मयस्सर जाम-ए-मय-ए-जम-जम हमें भी हो तुम्हें भी हो

हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ

कि हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो

रहे हिर्स-ओ-हवा दाइम अज़ीज़ो साथ जब अपने

न क्यूँकर फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम हमें भी हो तुम्हें भी हो

'ज़फ़र' से कहता है मजनूँ कहीं दर्द-ए-दिल महज़ूँ

जो ग़म से फ़ुर्सत अब इक दम हमें भी हो तुम्हें भी हो

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