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मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम - ज़फ़र कविता - Darsaal

मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम

मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम

दिल के हाथों से पड़े कैसी गिरफ़्तारी में हम

सब पे रौशन है हमारी सोज़िश-ए-दिल बज़्म में

शम्अ साँ जलते हैं अपनी गर्म-बाज़ारी में हम

याद में है तेरे दम की आमद-ओ-शुद पुर-ख़याल

बे-ख़बर सब से हैं इस दम की ख़बरदारी में हम

जब हँसाया गर्दिश-ए-गर्दूं ने हम को शक्ल-ए-गुल

मिस्ल-ए-शबनम हैं हमेशा गिर्या ओ ज़ारी में हम

चश्म ओ दिल बीना है अपने रोज़ ओ शब ऐ मर्दुमाँ

गरचे सोते हैं ब-ज़ाहिर पर हैं बेदारी में हम

दोश पर रख़्त-ए-सफ़र बाँधे है क्या ग़ुंचा सबा

देखते हैं सब को याँ जैसे कि तय्यारी में हम

कब तलक बे-दीद से या रब रखें चश्म-ए-वफ़ा

लग रहे हैं आज कल तो दिल की ग़म-ख़्वारी में हम

देख कर आईना क्या कहता है यारो अब वो शोख़

माह से सद चंद बेहतर हैं अदा-दारी में हम

ऐ 'ज़फ़र' लिख तू ग़ज़ल बहर ओ क़्वाफ़ी फेर कर

ख़ामा-ए-दुर-रेज़ से हैं अब गुहर-बारी में हम

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