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है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की - ज़फ़र कविता - Darsaal

है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की

है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की

आँखों के तले फिरती है तस्वीर किसी की

गिर्या भी है नाला भी है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी

पर दिल में हुई उस के न तासीर किसी की

हाथ आए है क्या ख़ाक तिरे ख़ाक-ए-कफ़-ए-पा

जब तक कि न क़िस्मत में हो इक्सीर किसी की

यारो वो है बिगड़ा हुआ बातें न बनाओ

कुछ पेश नहीं जाने की तक़रीर किसी की

नाज़ाँ न हो मुनइम कि जहाँ तेरा महल है

होवेगी यहाँ पहले भी तामीर किसी की

मेरी गिरह-ए-दिल न खुली है न खुलेगी

जब तक न खुले ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर किसी की

आता भी अगर है तो वो फिर जाए है उल्टा

जिस वक़्त उलट जाए है तक़दीर किसी की

इस अबरू ओ मिज़्गाँ से 'ज़फ़र' तेज़ ज़ियादा

ख़ंजर न किसी का है न शमशीर किसी की

जो दिल से उधर जाए नज़र दिल हो गिरफ़्तार

मुजरिम हो कोई और हो तक़्सीर किसी की

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