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भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ - ज़फ़र कविता - Darsaal

भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ

भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ

सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ

जो तू हो साफ़ तो कुछ मैं भी साफ़ तुझ से कहूँ

तिरे है दिल में कुदूरत कहूँ तो किस से कहूँ

न कोहकन है न मजनूँ कि थे मिरे हमदर्द

मैं अपना दर्द-ए-मोहब्बत कहूँ तो किस से कहूँ

दिल उस को आप दिया आप ही पशीमाँ हूँ

कि सच है अपनी नदामत कहूँ तो किस से कहूँ

कहूँ मैं जिस से उसे होवे सुनते ही वहशत

फिर अपना क़िस्सा-ए-वहशत कहूँ तो किस से कहूँ

रहा है तू ही तो ग़म-ख़्वार ऐ दिल-ए-ग़म-गीं

तिरे सिवा ग़म-ए-फ़ुर्क़त कहूँ तो किस से कहूँ

जो दोस्त हो तो कहूँ तुझ से दोस्ती की बात

तुझे तो मुझ से अदावत कहूँ तो किस से कहूँ

न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल

न उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ

किसी को देखता इतना नहीं हक़ीक़त में

'ज़फ़र' मैं अपनी हक़ीक़त कहूँ तो किस से कहूँ

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