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नवेद-ए-सफ़र - बद्र वास्ती कविता - Darsaal

नवेद-ए-सफ़र

मैं भी कुछ ख़्वाब सर-ए-शहर-ए-तमन्ना ले कर

सर में इरफ़ान-ए-ग़म-ए-ज़ात का सौदा ले कर

दिल में अरमान नहीं आग का दरिया ले कर

आँख में हसरत-ए-दीदार-ए-तमाशा ले कर

बस यूँही उठ के चला आया था बे-रख़्त-ए-सफ़र

गुलाब-जिस्मों के संग साँसों का सोचता था

ग़ज़ाल आँखों में घर बनाने की आरज़ू थी

किसी की ज़ुल्फ़ों में सर छुपाना भी चाहता था

दिल-ओ-नज़र में तमाम मंज़र हरे-भरे थे

सदा-ए-दिल पर रवाँ-दवाँ सा चला तो था मैं

मगर वो मंज़र कि जिन मनाज़िर में दिख रहा था नया सवेरा

वो सारे मंज़र हर एक हसरत धुआँ धुआँ सी कहीं पे ग़म है

मगर मैं अब भी दबी दबी सी सदा-ए-दिल ही तो सुन रहा हूँ

ज़माना लेकिन उसी तरह से रवाँ-दवाँ है

उदास-ओ-बद-दिल न था न हूँ मैं

यहीं से मुझ को नए सफ़र की नवेद भी है

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