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तुम्हारे दिल में जो ग़म बसा है तो मैं कहाँ हूँ - बद्र वास्ती कविता - Darsaal

तुम्हारे दिल में जो ग़म बसा है तो मैं कहाँ हूँ

तुम्हारे दिल में जो ग़म बसा है तो मैं कहाँ हूँ

ये मैं नहीं कोई दूसरा है तो मैं कहाँ हूँ

हमारी पलकों के ख़्वाब आख़िर उदास क्यूँ हैं

अगर ये तुम को ही सोचना है तो मैं कहाँ हूँ

वो मेरी तस्वीर मेरी ख़ुश्बू ख़याल मेरा

तुम्हारा कमरा सजा हुआ है तो मैं कहाँ हूँ

किसी ने देखा तो क्या कहेगा तुम ही बताओ

तुम्हारे हाथों में आईना है तो मैं कहाँ हूँ

तुम्हारी चाहत के ज़ख़्म शायद महक रहे हैं

सुना है मौसम हरा-भरा है तो मैं कहाँ हूँ

हरा जमेगा कि सुर्ख़ जोड़ा ये कारचोबी

तुम्हें ये दिल ही से पूछना है तो मैं कहाँ हूँ

ये तुम भी सोचो कि 'बद्र' आख़िर उदास क्यूँ है

चराग़ इतना बुझा बुझा है तो मैं कहाँ हूँ

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