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चराग़ों में अँधेरा है अँधेरे में उजाले हैं - बद्र वास्ती कविता - Darsaal

चराग़ों में अँधेरा है अँधेरे में उजाले हैं

चराग़ों में अँधेरा है अँधेरे में उजाले हैं

हमारे शहर में काली हवा ने पर निकाले हैं

हमें शब काटने का फ़न विरासत में मिला हम ने

कभी पत्थर पकाए हैं कभी सपने उबाले हैं

दिलों में ख़ौफ़ है उस का नज़र है उस की रहमत पर

गुनाहगारों में शामिल हैं मगर अल्लाह वाले हैं

लड़े थे साथ मिल कर हम चराग़ों के लिए लेकिन

हमारे घर अँधेरे हैं तुम्हारे घर उजाले हैं

तुम्हारी याद से अच्छा नहीं होता कोई आलम

मयस्सर जिन को हो जाए बड़ी तक़दीर वाले हैं

मोहब्बत आख़िरी हल है हमारे सब मसाइल का

मगर हम ने तो नफ़रत के संपोले दिल में पाले हैं

भड़कती आग तो दो चार दिन में बुझ गई थी 'बद्र'

अभी तक शहर के मंज़र न जाने क्यूँ धुआंले हैं

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