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तब - बद्र मुनीरुद्दीन कविता - Darsaal

तब

पहले हम जाते थे जब ससुराल में

बोलता था हर कोई सुर-ताल में

दे नहीं सकते इसे लफ़्ज़ों का रूप

गर्म-जोशी थी जो इस्तिक़बाल में

सास का चेहरा चमक उठता था यूँ

चाँद जैसे झील के पाताल में

प्यार में डूबी ससुर की गुफ़्तुगू

कितनी शीरीनी थी इन अक़वाल में

खिलखिला उठती थीं सारी सालियाँ

फूर्तियाँ आती थीं उन की चाल में

बैठने पाते न थे और दफ़अतन

सज के आ जाती थी चाय थाल में

अहद-ए-माज़ी का वो बाब-ए-ताबनाक

भूल हम सकते हैं कैसे हाल में

अब

अब कभी जाते हैं जब ससुराल में

और वो भी एक बार इक साल में

गर्म-जोशी सिर्फ़ दिखलाती है अब

सर्द-मेहरी हम को इस्तिक़बाल में

सास पा कर मेरे आने की ख़बर

सर छुपा कर सो गई है शाल में

और ससुर लगता है यूँ बैठा हुआ

शेर जैसे आदमी की खाल में

सालियाँ करके सलाम-ए-सरसरी

मस्त हो जाती हैं अपने हाल में

चाय का तो ज़िक्र ही मत कीजिए

अब तो बस काला है सब कुछ दाल में

वक़्त हम पर ये भी आना था 'मुनीर'

फँस गए हैं अब तो इक जंजाल में

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