निशान-ए-ज़ख़्म पे निश्तर-ज़नी जो होने लगी
निशान-ए-ज़ख़्म पे निश्तर-ज़नी जो होने लगी
लहू में ज़ुल्मत-ए-शब उँगलियाँ भिगोने लगी
हुआ वो जश्न कि नेज़े बुलंद होने लगे
नियाम तेग़ की ख़ंजर के साथ सोने लगी
जहाँ में दौड़ के पहुँचा था वो घनेरी छाँव
ज़रा सी देर में ज़ार-ओ-क़तार रोने लगी
नदी डुबाऊ न थी डूबना पड़ा लेकिन
किनारे पहुँचा तो शर्मिंदगी डुबोने लगी
सब अपनी प्यास बुझाने में महव थे हमा-तन
हुआ ये फिर कि हवा शो'ला-ख़ेज़ होने लगी
बढ़ाए हाथ मदद को दराज़ दस्तों ने
तो अपना बोझ वो च्यूँटी की तरह ढोने लगी
कुछ और सुर्ख़-रू हो कर उठे वो मक़्तल से
घटा भी उट्ठी तो दामन के दाग़ धोने लगी
वो पीर-ज़न जिसे काँटे निकालने थे 'ख़लिश'
वो साहिरा की तरह सूइयाँ चुभोने लगी
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