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गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो - बद्र-ए-आलम ख़लिश कविता - Darsaal

गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो

गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो

है दर-ए-दिल पे कोई संग-ए-गिराँ हम-नफ़सो

रिसने लगती हैं जब आँखों से तेज़ाबी यादें

बात करते हुए जलती है ज़बाँ हम-नफ़सो

दिल से लब तक कोई कोहराम सा सन्नाटा है

ख़ुद-कलामी मुझे ले आई कहाँ हम-नफ़सो

इक सुबुक मौज है इक लौह-ए-दरख़्शाँ पे रवाँ

है तमाशाई यहाँ सारा जहाँ हम-नफ़सो

कितने मसरूफ़ हैं मसरूर नहीं फिर भी ये लोग

है ये क्या सिलसिला-ए-कार-ए-ज़ियाँ हम-नफ़सो

शाम तम्हीद-ए-ग़ज़ल रात है तकमील-ए-ग़ज़ल

दिन निकलते ही निकल जाती है जाँ हम-नफ़सो

रश्क-ए-महशर कोई क़ामत तो निगाहों में जचे

दिल में बाक़ी है अभी ताब-ओ-तवाँ हम-नफ़सो

ज़िंदा हो रस्म-ए-जुनूँ किस की नवा-रेज़ी से

अब रहा कौन यहाँ शो'ला-ब-जाँ हम-नफ़सो

आज की शाम ग़ज़ल क्यूँ न 'ख़लिश' से ही सुनें

ढूँड कर लाए कोई है वो कहाँ हम-नफ़सो

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