आँखें मेरी क्या ढूँडती हैं
आँखें मेरी क्या ढूँढती हैं
पानी में या चट्टानों में
शबनम के नन्हे क़तरों में
बारूदी दहकते शो'लों में
गुलज़ारों में
या बंजर रेगिस्तानों में
महफ़िल में तन्हाई में
दूसरों की अँगनाई में
नज़्मों के तीखा-पन में
ग़ज़लों की रानाई में
मय-ख़्वानोंं के बंद किवाड़ों के पीछे
मंदिर में चढ़ाए फूलों में
मस्जिद के ख़ाली मुसल्ला पर
मरघट में क़ब्रिस्तानों में
बाज़ारों में वीरानों में
दश्त से काँपते होंटों पर
वहशत से लपकते जज़्बों पर
बोसीदा कच्ची खोली में
ऊँचे ऊँचे ऐवानों में
मुंसिफ़ के फिसलते क़लमों पर
मुल्ज़िम की लरज़ती साँसों में
इंसाफ़ की अंधी देवी में
या झूल रहे मीज़ानों में
बच्चों की तड़पती लाशों में
माओं की भी ममता में
आँखें मेरी उसी चेहरे की मुतलाशी हैं
जिस चेहरे में वो रहती थीं
वो चेहरा जो अब ख़ुद को भी पहचानने से क़ासिर है 'नज़र'
आँखें उस को क्या ढूँडेंगी
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