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जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है - बदीउज़्ज़माँ ख़ावर कविता - Darsaal

जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है

जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है

वो शब-परस्तों ने महफ़िल में तीरगी की है

हदीस-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम है हनूज़ ना-गुफ़्ता

हनूज़ मोहर ज़बानों पे ख़ामुशी की है

उस एक जाम ने साक़ी की जो अता ठहरा

सुकूँ दिया है न कुछ दर्द में कमी की है

हमें ये नाज़ न क्यूँ हो कि नय-नवाज़ हैं हम

हमारे होंटों ने ईजाद नग़्मगी की है

चमन में सिर्फ़ हमीं राज़दाँ हैं काँटों के

गुलों के साथ बसर हम ने ज़िंदगी की है

फ़िराक़-ए-यार ने बख़्शी है वस्ल की लज़्ज़त

ख़याल-ए-यार ने ज़ुल्मत में रौशनी की है

हैं जिस की दीद से महरूम आज तक 'ख़ावर'

उसी की हम ने तसव्वुर में बंदगी की है

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