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वही जिंस-ए-वफ़ा आख़िर फ़राहम होती जाती है - बीएस जैन जौहर कविता - Darsaal

वही जिंस-ए-वफ़ा आख़िर फ़राहम होती जाती है

वही जिंस-ए-वफ़ा आख़िर फ़राहम होती जाती है

मोहब्बत की हक़ीक़त भी मुसल्लम होती जाती है

है उन की आमद-ए-मौसीक़ियत-अंदाज़ का धोका

फुवारें गुनगुनाती हैं छमा-छम होती जाती है

तिरी चाहत ने ऐसी रूह-ए-ज़िंदा फूँक दी मुझ में

कि मेरी ज़िंदगी शौक़-ए-मुजस्सम होती जाती है

सिमट कर आ गईं तारीकियाँ बज़्म-ए-तसव्वुर में

मसर्रत और ख़ुशी की जोत मद्धम होती जाती है

वफ़ा के साज़ पर गाता हूँ नग़्मे ज़िंदगानी के

मिरी आवाज़ आवाज़-ए-दो-आलम होती जाती है

ये हाल अपना हुआ है शिद्दत-ए-ख़तरात-ए-पैहम से

तहफ़्फ़ुज़ की जो थी उम्मीद अब कम होती जाती है

हमारा साज़-ए-दिल ये आज तुम ने किस तरह छेड़ा

कि हर इक साँस इक आवाज़-ए-मातम होती जाती है

जवानी उठ रही है और नज़र माइल है झुकने पर

ये कैसी कश्मकश सी उन में पैहम होती जाती है

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