जाने फिर तुम से मुलाक़ात कभी हो कि न हो
जाने फिर तुम से मुलाक़ात कभी हो कि न हो
खुल के दुख-दर्द की कुछ बात कभी हो कि न हो
फिर हुजूम-ए-ग़म-ओ-जज़बात कभी हो कि न हो
तुम से कहने को कोई बात कभी हो कि न हो
आज तो एक ही कश्ती में हैं मंजधार में हम
फिर ये मजबूरी-ए-हालात कभी हो कि न हो
अहद-ए-माज़ी के फ़साने ही सुना लें तुम को
इतनी ख़ामोश कोई रात कभी हो कि न हो
जो जलाता है मिरे ग़म के अँधेरों में चराग़
मेरे हाथों में वही हात कभी हो कि न हो
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