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इक हूक सी जब दिल में उट्ठी जज़्बात हमारे आ पहुँचे - बीएस जैन जौहर कविता - Darsaal

इक हूक सी जब दिल में उट्ठी जज़्बात हमारे आ पहुँचे

इक हूक सी जब दिल में उट्ठी जज़्बात हमारे आ पहुँचे

अल्फ़ाज़ जो ज़ेहन में मौज़ूँ थे होंटों के किनारे आ पहुँचे

हालात ग़म-ए-दिल कह न सके और दर्द-ए-दरूँ भी सह न सके

आँसू जो हिसार-ए-चश्म में थे पलकों के सहारे आ पहुँचे

मझंदार में थे और डर ये था कि डूब ही जाएँगे अब हम

मौजों में जो लहराई कश्ती तिनकों के सहारे आ पहुँचे

हम जोश-ए-जवानी में आ कर इक ला-महदूद सफ़र में थे

मालूम हुआ मंज़िल ये न थी जब घाट किनारे आ पहुँचे

इक उम्र गुज़ारी थी हम ने मज़लूमों की ही हिमायत में

जब गोशा-नशीनी की ठानी फिर ज़ुल्म के मारे आ पहुँचे

बचपन में बहुत दुख होता था मज़लूम की आह-ओ-ज़ारी पर

होते ही जवाँ बहलाने को दुनिया के नज़ारे आ पहुँचे

दुनिया के हवादिस ने इतना पामाल किया हम को 'जौहर'

बचने की कोई उम्मीद न थी क़िस्मत के सितारे आ पहुँचे

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