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ग़ुबार-ए-जाँ पस-ए-दीवार-ओ-दर समेटा है - अज़रा वहीद कविता - Darsaal

ग़ुबार-ए-जाँ पस-ए-दीवार-ओ-दर समेटा है

ग़ुबार-ए-जाँ पस-ए-दीवार-ओ-दर समेटा है

दयार-ए-संग में शीशे का घर समेटा है

समुंदरों में भी सूरज ने बो दिए हैं सराब

गए थे सीप उठाने भँवर समेटा है

सऊबतों की कोई हद न आख़िरी देखी

हर एक राह में ज़ाद-ए-सफ़र समेटा है

मोहब्बतों ने दिया है सदाक़तों का शुऊर

बिखर गया है जब इक बार घर समेटा है

हवा के साथ सफ़र में क़बाहतें थीं बहुत

मिसाल-ए-अब्र बिखरता नगर समेटा है

अँधेरी रात में सूरज की जुस्तुजू की है

हवाओं में भी चराग़-ए-नज़र समेटा है

जो शाख़ शाख़ परिंदों का आशियाना था

वो बर्ग बर्ग पुराना शजर समेटा है

नुमू के रब कभी उस मुंसिफ़ी की दाद तो दे

शजर कोई न लगाया समर समेटा है

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