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फ़ज़ा का रंग निखरता दिखाई देता है - अज़रा वहीद कविता - Darsaal

फ़ज़ा का रंग निखरता दिखाई देता है

फ़ज़ा का रंग निखरता दिखाई देता है

है शब तमाम कि सपना दिखाई देता है

लहू का रंग है मिट कर भी रंग लाएगा

उफ़ुक़ का रंग सुनहरा दिखाई देता है

वो जिस ने धूप के मेले को छत मुहय्या की

सड़क पे उस का बसेरा दिखाई देता है

मैं कौन हूँ कि है सब काँच का वजूद मिरा

मिरा लिबास भी मैला दिखाई देता है

सराब लब पे सजाए हर एक फिरता है

मुझे तो शहर भी सहरा दिखाई देता है

तने को छोड़ के पत्तों को थामने वालो

तुम्हें शजर भी तमाशा दिखाई देता है

अभी से कश्तियाँ साहिल पे ले चले लोगो

अभी से तुम को किनारा दिखाई देता है

वो सौंप जाता है मुझ को हवा के हाथों में

उसी का मुझ को सहारा दिखाई देता है

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