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अब अपनी चीख़ भी क्या अपनी बे ज़बानी क्या - अज़रा परवीन कविता - Darsaal

अब अपनी चीख़ भी क्या अपनी बे ज़बानी क्या

अब अपनी चीख़ भी क्या अपनी बे ज़बानी क्या

महज़ असीरों की महसूर ज़िंदगानी क्या

रुतें जो तू ने उतारी हैं ख़ूब होंगी मगर

बबूल-सेज पे सजती है गुल-फ़िशानी क्या

है जिस्म एक तज़ादात के कई ख़ाने

करेगा पर इन्हें इक रंग-ए-आसमानी क्या

हज़ार करवटें झंकार ही सुनाती हैं

यूँ झटपटाने से ज़ंजीर होगी पानी क्या

ज़मीं के और तक़ाज़े फ़लक कुछ और कहे

क़लम भी चुप है कि अब मोड़ ले कहानी क्या

अना तो क़ैद की तश्हीर से गुरेज़ाँ थी

पुकार उट्ठी मगर मेरी बे-ज़बानी क्या

मैं ख़ुश्क नख़्ल सी जंगल तवील तेज़ हवा

बिखेर देगी मुझे भी ये बे-मकानी क्या

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