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सुब्ह के दो मंज़र - अज़रा नक़वी कविता - Darsaal

सुब्ह के दो मंज़र

मोतिया से खिले हुए बच्चे

पाक मासूम नर्म चेहरों पर

सुब्ह की ताज़गी का नूर लिए

लाल पीले सजीले बस्तों में

अपनी माओं का प्यार बाप के ख़्वाब

रोज़ स्कूल ले के जाते हैं

सुब्ह होती है फेंक देता है

ज़र्द मैला थका थका सूरज

पाक मासूम नर्म चेहरों पर

रोज़ी रोटी की एहतियाज की धूल

सुब्ह होती है कच्ची बस्ती में

रोज़ की तरह जाग उठते हैं

नन्हे मज़दूर भोले सौदागर

फूल से हाथों वाले कारी-गर

कार-ख़ानों में शाह-राहों पर

तंग गलियों में चाय-ख़ानों में अपनी क़िस्मत जगाने जाते हैं

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