किसी ख़याल की हिद्दत से जलना चाहती हूँ

किसी ख़याल की हिद्दत से जलना चाहती हूँ

मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ ग़ज़ल में पिघलना चाहती हूँ

अजीब मौसम-ए-दिल है अजीब मजबूरी

न ख़ुद से रूठूँ न तुम से बिछड़ना चाहती हूँ

पहन के ख़्वाब-ए-क़बा ढूँड लूँगी चाँद-नगर

सहज सहज किसी बादल पे चलना चाहती हूँ

हक़ीक़तें तो मिरे रोज़ ओ शब की साथी हैं

मैं रोज़ ओ शब की हक़ीक़त बदलना चाहती हूँ

कभी तो ख़ुद-निगरी की फ़सील से बाहर

ख़ुद अपने साथ सफ़र पर निकलना चाहती हूँ

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