किसी ख़याल की हिद्दत से जलना चाहती हूँ
किसी ख़याल की हिद्दत से जलना चाहती हूँ
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ ग़ज़ल में पिघलना चाहती हूँ
अजीब मौसम-ए-दिल है अजीब मजबूरी
न ख़ुद से रूठूँ न तुम से बिछड़ना चाहती हूँ
पहन के ख़्वाब-ए-क़बा ढूँड लूँगी चाँद-नगर
सहज सहज किसी बादल पे चलना चाहती हूँ
हक़ीक़तें तो मिरे रोज़ ओ शब की साथी हैं
मैं रोज़ ओ शब की हक़ीक़त बदलना चाहती हूँ
कभी तो ख़ुद-निगरी की फ़सील से बाहर
ख़ुद अपने साथ सफ़र पर निकलना चाहती हूँ
(2046) Peoples Rate This