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कैसे कैसे स्वाँग रचाए हम ने दुनिया-दारी में - अज़रा नक़वी कविता - Darsaal

कैसे कैसे स्वाँग रचाए हम ने दुनिया-दारी में

कैसे कैसे स्वाँग रचाए हम ने दुनिया-दारी में

यूँ ही सारी उमर गँवा दी औरों ग़म-ख़्वारी में

हम भी कितने सादा-दिल थे सीधी सच्ची बात करें

लोगों ने क्या क्या कह डाला लहजों की तह-दारी में

जब दुनिया पर बस न चले तो अंदर अंदर कुढ़ना क्या

कुछ बेले के फूल खिलाएँ आँगन की फुलवारी में

कई दिनों से जिस्म ओ जाँ पर इक बे-कैफ़ी छाई है

भीग रही है रात सुनाओ कोई ग़ज़ल दरबारी में

आने वाले कल की ख़ातिर हर हर पल क़ुर्बान किया

हाल को दफ़ना देते हैं हम जीने की तय्यारी में

तुम भी इन बीते बरसों की कोई निशानी ले आना

मैं तुम से मिलने आऊँगी इसी बसंती सारी में

अब की बार जो घर जाना तो सारे एल्बम ले आना

वक़्त की दीमक लग जाती है यादों की अलमारी में

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