टुकड़ों में बटी हुई ज़िंदगी
पहले हम ज़िंदगी को टुकड़ों में
तक़्सीम करते हैं
और फिर
इन टुकड़ों को रख कर
भूल जाते हैं
ये भूल हमारे जिस्म को
एक जाल में लपेट लेती है
कौन सा टुकड़ा
कहाँ रखा था
जिस की ज़रूरत पड़ती है
वक़्त पर वो नहीं मिलता
हम सारी ज़िंदगी
ज़रूरत के वक़्त
अपनी ज़िंदगी के टुकड़े
तलाश करते रहते हैं
लेकिन
बे-तरतीबी और भूल-भुलय्याँ
जारी रहती हैं
ज़िंदगी गुज़र जाती है
और गुज़र जाने के बा'द
टुकड़े आपस में मिल जाते हैं
या कोई दूसरा उन्हें जम्अ कर लेता है
(1210) Peoples Rate This