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सेल्फ-पोर्ट्रेट - अज़रा अब्बास कविता - Darsaal

सेल्फ-पोर्ट्रेट

एक बहुत अजीब और गहरी शाम में

मैं ने

ज़ख़्मी परिंदे को दीवार की मुंडेर पर

सुस्ताते हुए देखा

उस की आँखें निकली पड़ रही थीं

और ज़बान बाहर निकल आई थी

मैं ने इस से पहले भी

ऐसा मंज़र कहीं देखा था

मेरी याद-दाश्त बहुत ख़राब है

मुझे कुछ याद नहीं रहता

हाँ

नए मंज़रों से मिलता जुलता

कोई पुराना मंज़र

मुझे याद आता है

ऐसे ही किसी मंज़र में

उस परिंदे की हालत से

मिलती-जुलती

एक लड़की की तस्वीर

मैं ने

काग़ज़ पर बनाना चाही

लेकिन परिंदा उड़ गया

और लड़की

बरहना हो गई

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