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मुझे तक़्सीम कर दो - अज़रा अब्बास कविता - Darsaal

मुझे तक़्सीम कर दो

अपनी ज़बान

मिरे माथे से मिरी नाक की सीध पर

नीचे की तरफ़

आहिस्ता आहिस्ता ले कर चलो

हाँ ऐसे यूँ

बहुत आहिस्ता बिल्कुल च्यूँटी की तरह

रेंगती हुई

तुम्हारी ज़बान मिरे जिस्म के बीचों-बीच

जैसे तुम मुझे आधा कर रहे हो

पेट के उभार से होते हुए

नाफ़ के उभार से होते हुए

नाफ़ के रास्ते से

पेड़ू के उभार पर ठहर जाओ

अब तो मेरी साँस चढ़ने लगी है

यहाँ से

ढलवान शुरूअ' हो जाती है

पिछ्ला तो सारा रास्ता सीधा ही था

तुम्हारी ज़बान

अब तक अपनी एक एक सरक में

कितने जाम पिला चुकी है

जानते हो

इस लम्स का नशा शराब ही जैसा तो है

एक घूँट दो

ज़बान यहीं रहने दो

एक घूँट ले लूँ

ये जब मिरे हल्क़ से नीचे उतरेगी

तुम नहीं जान सकते

तुम्हें बता दूँ तो भी तो क्या मेरे अंदर

सरसराते हुए

उन साँपों को देख सकोगे

जो तुम्हारी ज़बान के सरकने के साथ साथ

एक एक जुम्बिश पर मेरे अंदर

फुंकारते हैं

मुझ पर एक साथ वार करते हैं

हाँ रुको नहीं

इस ढलान से नीचे भी तो जाना है

नीचे और नीचे जहाँ

तुम्हारी ज़बान थोड़ी देर

सुसताएगी

और फिर मुझे दो हिस्सों में

तक़्सीम कर देगी

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