मेल उतारना मुश्किल लगता है
सारे दिन के मेल को
जिस्म से उतारना मुश्किल लगता है
सर को दिन भर की धूल से
फ़ारिग़ करना
और फिर गर्दन के काले दाएरे को
हल्का करना
साबुन के बुलबुलों से
फिर आहिस्ता आहिस्ता उन गोलाइयों की तरफ़
बढ़ना
जिन पर मेल कभी नहीं चढ़ता
ज़रा सी तिरछी
एक तरफ़ को झुकी हुई
सदा की चमकी-चमकाई
उन्हें मैं अब नहीं धोती
फिर उभरे हुए पेट पर
बरसों का पसीना
जमे हुए चुइंग-गम की तरह
कभी नहीं उतरता
साबुन के झाग के बुलबुले तेज़ी से
उस पर फूटते रहते हैं
और फिर बे-हँगम कूल्हों की
बारी आती है
कभी जब में चलती थी
तो सर-फिरे पलट पलट कर
उन के उतरने चढ़ने को
घूरते रहते थे
नाफ़ से ले कर नाख़ुनों तक
साबुन बे-डोल झाग बनाता है
झाग और पोरों की आँख-मिचोली
जो मेल पसीना बन कर बह जाती है
अब जिस्म से मेल उतारना
मुश्किल लगता है
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