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एक ज़िंदगी और मिल जाए - अज़रा अब्बास कविता - Darsaal

एक ज़िंदगी और मिल जाए

अगर मुझे एक ज़िंदगी

और मिल जाए

तो मैं अपने सफ़र को

अपने अस्बाब के साथ

बाँध कर रख्खूँ

एक परिंदे की तरह

पानियों से टकराती हुई

आँख से ओझल हो जाऊँ

एक ऐसे दरख़्त की तरह

जो सारी उम्र

धूप और छाँव का मज़ा लेता है

एक ऐसे बंजारे की तरह

जो पहाड़ों और मैदानों को

अपने क़दमों की धूल में

समेट लेता है

किसी ऐसी रक़्क़ासा की तरह

जो अपने मन का बोझ

अपने जिस्म पर डाल देती है

किसी ऐसी जंग में शरीक हो कर

जो भूक और नफ़रत के ख़िलाफ़

लड़ी जा रही हो

मारी जाऊँ

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