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दिन - अज़रा अब्बास कविता - Darsaal

दिन

दिन गुज़रते हैं

दिन कैसे गुज़रते हैं

यूँ तो सब ही दिन गुज़र जाते हैं

जो ज़िंदा हैं

वो तो गुज़ारते हैं

ज़लील होते हुए

कभी भूक के हाथों

कभी चारों तरफ़ फैली उन वबाओं

की सरपरस्ती में

जो ख़ुदा बन जाती हैं

सफ़्फ़ाक बे-रहमी के लिबास में

घरों की मुंडेरों पर चलती हैं

छलावों की तरह

चबाती हैं माओं के कलेजे

चीरती हैं नन्हे बच्चों का दिल

अपनी किसी ज़ियाफ़त में पेश करने के लिए

अपनी ही जैसी बलाओं को

नहीं रोक सकता कोई उन्हें

वो भी जो उन का ख़ुदा है

वो बुलाते हैं अपने ख़ुदा को भी

इस ज़ियाफ़त में

शायद वो भी इंसानी गोश्त का

शौक़ीन है

और उकसाता है उन्हें

जब जब उसे इश्तिहा होती है

उन का ख़ुदा

सिर्फ़ उन का ख़ुदा है

उन का नहीं

जिन के कलेजे चबाए जा रहे हैं

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