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वतन - अज़मतुल्लाह ख़ाँ कविता - Darsaal

वतन

मिरी जान हो कि मिरा बदन

तिरा जल्वा-गाह है ऐ वतन

तिरी ख़ाक उन का ख़मीर है

मिरे ख़ून में ये झलक तिरी

मिरी नब्ज़ में ये चिपक तिरी

मिरी साँस तिरी सफ़ीर है

तिरी ख़ाक जग का ख़ुलासा है

तेरा हुस्न एक तमाशा है

तिरी फैली गोद कि बाग़ है

तिरी ख़ाक-ए-पाक ज़लील है

तो गु़लामियों की दलील है

तिरी पौद शर्म का दाग़ है

तुझे मा-सिवा से गिरा दिया

हमें मा-सिवा ने मिटा दिया

हुए तफ़रक़ों से तमाम हम

तुझे जब तलक कि भुला रखा

हमें वक़्त ने भी मिटा रखा

बने घर में अपने ग़ुलाम हम

तिरे ख़ून हैं ये फटे फटे

तिरे पूत हैं ये बटे बटे

तिरे दिल जिगर हैं ये बे-वफ़ा

तिरा कुछ लहू ही सफ़ेद है

कि अजब तरह का ये भेद है

नहीं भाई भाई से आश्ना

नहीं ग़ैर का हमें कुछ गिला

कि गु़लामियों का ये फल मिला

हमें तफ़रक़े के जुनून से

तिरे दूध में मिरी प्यारी माँ

नहीं दर्द की कोई बिजलियाँ

कि मिला दे ख़ून को ख़ून से

हमें भाइयों से ग़ुरूर हैं

तिरे जहल-ओ-वहम में चूर हैं

कि जो काम हैं सो ख़ता के हैं

कहीं ज़ात-पात की लाग है

कहीं दीन-धर्म की आग है

कहीं बैर मुफ़्त ख़ुदा के हैं

जिन्हें पीत है उन्हें जीत है

यही जग में जीत की रीत है

तिरे पूत अपनों से ग़ैर हैं

हमें ग़ैरियत ये मिटानी है

हमें जीत आप पे पानी है

उसी घर के ग़ैर से ग़ैर हैं

तिरे पूत भाई हैं भाई हूँ

तिरे दिल से सब ही फ़िदाई रहूँ

कि तू आप अपनी मिसाल हो

तिरे ज़ोर की यही धाक हो

कि जहाँ बुराई से पाक हो

तिरा इल्म हक़ का कमाल हो

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