कोई आसान रिफ़ाक़त नहीं लिक्खी मैं ने
क़ुर्ब को जब भी लिखा जज़्ब-ए-रक़ाबत लिख्खा
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आमादगी को वस्ल से मशरूत मत समझ
ख़राबी
दरिया पार उतरने वाले ये भी जान नहीं पाए
जो बात शर्त-ए-विसाल ठहरी वही है अब वज्ह-ए-बद-गुमानी
मैं ने कल ख़्वाब में आइंदा को चलते देखा
कितने मौसम सरगर्दां थे मुझ से हाथ मिलाने में
मैं उम्र के रस्ते में चुप-चाप बिखर जाता
खुलता नहीं कि हम में ख़िज़ाँ-दीदा कौन है
वुसअत-ए-चश्म को अंदोह-ए-बसारत लिक्खा
शाम आई तो कोई ख़ुश-बदनी याद आई
रौशनी ढूँड के लाना कोई मुश्किल तो न था