ऐ ख़्वाब-ए-पज़ीराई तू क्यूँ मिरी आँखों में
अंदेशा-ए-दुनिया की ताबीर उठा लाया
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सवाल करने के हौसले से जवाब देने के फ़ैसले तक
वुसअत-ए-चश्म को अंदोह-ए-बसारत लिख्खा
ख़राबी
उठो 'अज़्म' इस आतिश-ए-शौक़ को सर्द होने से रोको
रौशनी ढूँड के लाना कोई मुश्किल तो न था
दरिया पार उतरने वाले ये भी जान नहीं पाए
जो बात शर्त-ए-विसाल ठहरी वही है अब वज्ह-ए-बद-गुमानी
कोई आसान रिफ़ाक़त नहीं लिक्खी मैं ने
बहुत क़रीने की ज़िंदगी थी अजब क़यामत में आ बसा हूँ
आमादगी को वस्ल से मशरूत मत समझ
कहीं गोयाई के हाथों समाअत रो रही है
वुसअत-ए-चश्म को अंदोह-ए-बसारत लिक्खा