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ख़राबी - अज़्म बहज़ाद कविता - Darsaal

ख़राबी

ख़राबी का आग़ाज़

कब और कहाँ से हुआ

ये बताना है मुश्किल

कहाँ ज़ख़्म खाए

कहाँ से हुए वार

ये भी दिखाना है मुश्किल

कहाँ ज़ब्त की धूप में हम बिखरते गए

और कहाँ तक कोई सब्र हम ने समेटा

सुनाना है मुश्किल

ख़राबी बहुत सख़्त-जाँ है

हमें लग रहा था ये हम से उलझ कर

कहीं मर चुकी है

मगर अब जो देखा तो ये शहर में

शहर के हर मोहल्ले में हर हर गली में

धुएँ की तरह भर चुकी है

ख़राबी रूएँ में

ख़्वाबों में, ख़्वाहिश में

रिश्तों में घिर चुकी है

ख़राबी तो लगता है

ख़ूँ में असर कर चुकी है

ख़राबी का आग़ाज़

जब भी जहाँ से हुआ हो

ख़राबी के अंजाम से ग़ालिबन

जाँ छुड़ाना है मुश्किल

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