वुसअत-ए-चश्म को अंदोह-ए-बसारत लिख्खा
वुसअत-ए-चश्म को अंदोह-ए-बसारत लिख्खा
मैं ने इक वस्ल को इक हिज्र की हालत लिख्खा
मैं ने परवाज़ लिखी हद्द-ए-फ़लक से आगे
और बे-बाल-ओ-परी को भी निहायत लिख्खा
मैं ने ख़ुश्बू को लिखा दस्तरस-ए-गुम-शुदगी
रंग को फ़ासला रखने की रिआयत लिक्खा
हुस्न-ए-गोयाई को लिखना था लिखी सरगोशी
शोर लिखना था सो आज़ार-ए-समाअत लिख्खा
मैं ने ताबीर को तहरीर में आने न दिया
ख़्वाब लिखते हुए मोहताज-ए-बशारत लिख्खा
कोई आसान रिफ़ाक़त नहीं लिक्खी मैं ने
क़ुर्ब को जब भी लिखा जज़्ब-ए-रक़ाबत लिख्खा
इतने दाँव से गुज़र कर ये ख़याल आता है
'अज़्म' क्या तुम ने कभी हर्फ़-ए-नदामत लिख्खा
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