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उस आँख से वहशत की तासीर उठा लाया - अज़्म बहज़ाद कविता - Darsaal

उस आँख से वहशत की तासीर उठा लाया

उस आँख से वहशत की तासीर उठा लाया

मैं जागते रहने की तदबीर उठा लाया

मैं नीयत-ए-शब-ख़ूँ से ख़ेमे में गया लेकिन

दुश्मन के सिरहाने से शमशीर उठा लाया

वो सुब्ह-ए-रिहाई थी या शाम-ए-असीरी थी

जब मैं दर-ए-ज़िंदाँ से ज़ंजीर उठा लाया

आवारा-मिज़ाजी पर हर्फ़ आने से पहले ही

दिल तेरे तग़ाफ़ुल की तस्वीर उठा लाया

ऐ ख़्वाब-ए-पज़ीराई तू क्यूँ मिरी आँखों में

अंदेशा-ए-दुनिया की ताबीर उठा लाया

वो संग-ए-मलामत था जिस को तिरा दिल कह कर

उस कूचे से मुझ जैसा रह-गीर उठा लाया

उस शख़्स से मैं सब को उजलत में मिला बैठा

और अपने लिए कैसी ताख़ीर उठा लाया

मैदान-ए-शिकायत से क्या अपने सिवा लाता

इक रंज था मैं जिस की तामीर उठा लाया

उस बज़्म-ए-सुख़न में हम क्या पहुँचे कि शोर उट्ठा

लो 'अज़्म' कोई ज़ख़्मी तहरीर उठा लाया

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