शाम आई तो कोई ख़ुश-बदनी याद आई
शाम आई तो कोई ख़ुश-बदनी याद आई
मुझे इक शख़्स की वादा-शिकनी याद आई
मुझे याद आया कि इक दौर था सरगोशी का
आज उसी दौर की इक कम-सुख़नी याद आई
मसनद-ए-नग़्मा से इक रंग-ए-तबस्सुम उभरा
खिलखिलाती हुई ग़ुंचा-दहनी याद आई
लब जो याद आए तो बोसों की ख़लिश जाग उठी
फूल महके तो मुझे बे-चमनी याद आई
फिर तसव्वुर में चली आई महकती हुई शब
और सिमटी हुई बे पैरहनी याद आई
हाँ कभी दिल से गुज़रता था जुलूस-ए-ख़्वाहिश
आज उसी तरह की इक नारा-ज़नी याद आई
क़िस्सा-ए-रफ़्ता को दोहरा तो लिया 'अज़्म' मगर
किस मसाफ़त पे तुम्हें बे-वतनी याद आई
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