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जो यहाँ हाज़िर है वो मिस्ल-ए-गुमाँ मौजूद है - अज़्म बहज़ाद कविता - Darsaal

जो यहाँ हाज़िर है वो मिस्ल-ए-गुमाँ मौजूद है

जो यहाँ हाज़िर है वो मिस्ल-ए-गुमाँ मौजूद है

और जो ग़ाएब है उस की दास्ताँ मौजूद है

ऐ ग़ुबार-ए-ख़्वाहिश-ए-यक-उम्र अपनी राह ले

इस गली में तुझ से पहले इक जहाँ मौजूद है

अब किसी अम्बोह-ए-गुम-गश्ता की जानिब हो सफ़र

और कोई चुपके से कह दे तू कहाँ मौजूद है

शायद आ पहुँचा है अहद-ए-इंतिज़ार-ए-गुफ़्तुगू

चार जानिब ख़िल्क़त-ए-लब-बस्तगाँ मौजूद है

रात फिर आँखों से बह निकली तमन्ना-ए-विसाल

ऐसा लगता था कि तू भी दरमियाँ मौजूद है

पहले थी इक तिश्नगी महरूमियों से हम-कनार

अब रगों में नश्शा-ए-उम्र-ए-रवाँ मौजूद है

अज़्म ख़ुद को कारवान-ए-नफ़'अ में शामिल न कर

तेरे शानों पर अभी बार-ए-ज़ियाँ मौजूद है

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