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बहुत क़रीने की ज़िंदगी थी अजब क़यामत में आ बसा हूँ - अज़्म बहज़ाद कविता - Darsaal

बहुत क़रीने की ज़िंदगी थी अजब क़यामत में आ बसा हूँ

बहुत क़रीने की ज़िंदगी थी अजब क़यामत में आ बसा हूँ

सुकून की सुब्ह चाहता था सो शाम-ए-वहशत में आ बसा हूँ

मैं अपनी अंगुश्त काटता था कि बीच में नींद आ न जाए

अगरचे सब ख़्वाब का सफ़र था मगर हक़ीक़त में आ बसा हूँ

विसाल-ए-फ़र्दा की जुस्तुजू में नशात-ए-इमरोज़ घट रहा है

ये किस तलब में घिरा हुआ हूँ ये किस अज़िय्यत में आ बसा हूँ

यहाँ तो बे-फ़ुर्सती के हाथों वो पाएमाली हुई है मेरी

कि जिस से मिलने की आरज़ू थी उसी की फ़ुर्क़त में आ बसा हूँ

कहाँ की दुनिया कहाँ की साँसें कि सब फ़रेब-ए-हवास निकला

जज़ा की मुद्दत समझ रहा था सज़ा की मोहलत में आ बसा हूँ

सवाल करने के हौसले से जवाब देने के फ़ैसले तक

जो वक़्फ़ा-ए-सब्र आ गया था उसी की लज़्ज़त में आ बसा हूँ

ये उन से कहना जो मेरी चुप से हज़ार बातें बना रहे थे

मैं अपने शोले को पा चुका हूँ मैं अपनी शिद्दत में आ बसा हूँ

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