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किसी के नाम पे नन्हे दिए जलाते हुए - अज़लान शाह कविता - Darsaal

किसी के नाम पे नन्हे दिए जलाते हुए

किसी के नाम पे नन्हे दिए जलाते हुए

ख़ुदा को भूल गए नेकियाँ कमाते हुए

वगर्ना बात हमारी समझ से बाहर थी

ये इश्क़ हो गया बस रूठते मनाते हुए

हमारी वापसी आसाँ नहीं यक़ीं मानो

यहाँ तक आए हैं हम कश्तियाँ जलाते हुए

उन्हें अज़ीज़ है जीना जो जी रहे हैं यहाँ

मज़ाक़ बन के ख़ुद अपना मज़ाक़ उड़ाते हुए

भड़ास दिल की निकाली गई कुछ ऐसे भी

दुआएँ माँगी गईं चीख़ते चिल्लाते हुए

मैं घिर गया हूँ यहाँ पर बहुत से अपनों में

तिरे लिए सभी कुछ दाव पर लगाते हुए

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