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दूसरा रुख़ नहीं जिस का उसी तस्वीर का है - अज़लान शाह कविता - Darsaal

दूसरा रुख़ नहीं जिस का उसी तस्वीर का है

दूसरा रुख़ नहीं जिस का उसी तस्वीर का है

मसअला भूले हुए ख़्वाब की ताबीर का है

चंद क़दमों से ज़ियादा नहीं चलने पाते

जिस को देखो वही क़ैदी किसी ज़ंजीर का है

जो भी करना है फ़क़त दिल की तसल्ली के लिए

वक़्त तहरीर का है और न तदबीर का है

तुम मोहब्बत का उसे नाम भी दे लो लेकिन

ये तो क़िस्सा किसी हारी हुई तक़दीर का है

ये जो चलने नहीं पाते तिरी जानिब दर-अस्ल

जल्दी जल्दी में कहीं डर हमें ताख़ीर का है

बिल्कुल ऐसे मुझे हासिल है हिमायत सब की

हर कोई जैसे तरफ़-दार यहाँ हीर का है

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