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तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा - अज़ीज़ वारसी कविता - Darsaal

तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा

तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा

फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा

यहाँ तो एक लैला के न जाने कितने मजनूँ हैं

यहाँ अपना गरेबाँ अपना दामाँ कौन देखेगा

बहुत निकले हैं लेकिन फिर भी कुछ अरमान हैं दिल में

ब-जुज़ तेरे मिरा ये सोज़-ए-पिन्हाँ कौन देखेगा

अगर पर्दे की जुम्बिश से लरज़ता है तो फिर ऐ दिल

तजल्ली-ए-जमाल-ए-रू-ए-जानाँ कौन देखेगा

अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रत

हमारे बा'द फिर अंदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा

मुझे पी कर बहकने में बहुत ही लुत्फ़ आता है

न तुम देखोगे तो फिर मुझ को फ़रहाँ कौन देखेगा

जिसे कहता है इक आलम 'अज़ीज़'-ए-वारिस-ए-आलम

उसे आलम में हैरान-ओ-परेशाँ कौन देखेगा

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