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शीशा लब से जुदा नहीं होता - अज़ीज़ वारसी कविता - Darsaal

शीशा लब से जुदा नहीं होता

शीशा लब से जुदा नहीं होता

नश्शा फिर भी सिवा नहीं होता

दर्द-ए-दिल जब सिवा नहीं होता

इश्क़ में कुछ मज़ा नहीं होता

हर नज़र सुर्मगीं तो होती है

हर हसीं दिलरुबा नहीं होता

हाँ ये दुनिया बुरा बनाती है

वर्ना इंसाँ बुरा नहीं होता

अस्र-ए-हाज़िर है जब क़यामत-ख़ेज़

हश्र फिर क्यूँ बपा नहीं होता

पारसा रिंद हो तो सकता है

रिंद क्यूँ पारसा नहीं होता

शेर के फ़न में और बयाँ में 'अज़ीज़'

'मोमिन' अब दूसरा नहीं होता

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