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इक हम कि उन के वास्ते महव-ए-फ़ुग़ाँ रहे - अज़ीज़ वारसी कविता - Darsaal

इक हम कि उन के वास्ते महव-ए-फ़ुग़ाँ रहे

इक हम कि उन के वास्ते महव-ए-फ़ुग़ाँ रहे

इक वो कि दस्त-ए-शौक़ से दामन-कशाँ रहे

दिल में यही ख़लिश रहे सोज़-ए-निहाँ रहे

लेकिन मज़ाक़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत जवाँ रहे

इक वक़्त था कि दिल को सुकूँ की तलाश थी

और अब ये आरज़ू है कि दर्द-ए-निहाँ रहे

अहल-ए-वफ़ा पर आईं हज़ारों मुसीबतें

ये सब रहीन-ए-गर्दिश-ए-हफ़्त-आसमाँ रहे

उन का शबाब हर गुल-ए-नौरस से फट पड़ा

छुपने के बावजूद वो हर सू अयाँ रहे

हम ने हज़ार तरह किया उन को मुतमइन

हर बात पर वो हम से मगर बद-गुमाँ रहे

अल्लाह रे तल्ख़-कामी-ए-उल्फ़त की इंतिहा

मुझ से मिरे 'अज़ीज़' भी दामन-कशाँ रहे

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